ई –कॉमर्स और हमारा उपभोक्ता

ई –कॉमर्स और हमारा उपभोक्ता
ई कामर्स के हमारे जीवन में प्रवेश करने से पारम्परिक खरीददारी का युग तो जैसे समाप्त हो गया है। नेट से खरीदारी ने इतना ज़ोर पकड़ लिया है कि किसी विशिष्ट कानून के अभाव मे भी सब काम चल रहा है 2006 मे सोशल नेटवर्किंग के आने से विज्ञापनो का दौर ओर तेज़ हो गया ओर अब तो ब्रॉड बैंड ,मोबाइल डिवाइसिस, इंटरनेट के माध्यम से मार्केट सहज उपलब्धहै । मार्केट के असंख्य केटलोग एक क्लिक से खोल सकते है । स्पर्धा के बड्ने से सस्ते दामो पर मन पसंद ओर अपनी पॉकेट के अनुसार सब कुछ उपलब्ध हो रहा है. किन्तु जितनी तेज़ी से हमने इसे अपनाया है उतना ही असंतुष्ट दीखता है उपभोक्ता . शिकायते देखे तो यह समझना मुश्किल हो रहा कि उपभोक्ता झूठ बोल रहा है या बेचने वाला. शिकायते है-
पेकेट खाली निकला , जूते दोनों एक पैर के मिले ,पैसे देने के बाद आर्डर नहीं पहुंचा ,रंग दूसरा आ गया ,आर्डर केंसिल केर दिया ,कपडा अच्छा नहीं है, मोबाइल के पैसे ले केर खिलौना भेज दिया .
कौन गलत कर गया पता नहीं चलता . कभी कोरियर पर कभी डीलर पर और कभी बिचोले डील करने वाले पर प्रश्न उठते है .ऐसे में आवश्यक होता है कि उनके बताये नियमो ,प्रक्रिया को समझ ले हमारे देश मे लोगो को आधी अधूरी जानकारी से काम चलाने की आदत है.हम प्रक्रिया को नहीं समझते पर नक़ल करने में देर नहीं लगाते.
हमारे पास इ-कॉमर्स के लिए अलग कानून नहीं है किन्तु उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम उसी प्रकार लागू होता है जैसे आमने सामने की गयी खरीद दारी पर लागू होता है . वर्ष 2000 मे ही इन्फोर्मशन टेक्नोलोजी एक्ट के बन जाने से इ -मेल से हुए संवाद को कानूनी मान्यता मिल गई जिससे उसे एक लीगल दस्तावेज़ माना जा सकता. इसलिए नेट पर हुआ संवाद खरीददारी का प्रमाण होता है . कठिनाइया तब आती है जब उपभोक्ता इंटरनेट के माध्यम से वैबसाइट की पूरी जानकारी जाने बिना डील केर लेता है ,पैसे भी क्रेडिट कार्ड से दे देता है ओर फिर वेब साइट गायब हो जाती है । उसका पूरा पता नहीं होने के कारण उपभोक्ता अदलते कुछ मदद नहीं केर सकती क्योकि दोषी पक्ष को अदालत का नोटिस देने के लिए पूरा पता चाहिए । इस संबंध मे कोनसीम इंन्फो प्राइवेट लिमिटेड बनाम गूगल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के मामले मे दिल्ली की अदालत मे गूगल ने यह तर्क दिया कि गूगल एक सर्च इंजिन है,इस पर कोई भी वैबसाइट क्या विज्ञापन देती है इसका दायित्व गूगल का नहीं होता । अदालत ने इस टतर्क को माना किन्तु यह भी कहा कि यदि कोई फ़्रौड की सूचना गूगल को मिलती है तो 36 घंटो के बीच उसे भी एक्शन लेना होगा ।
दूसरी कठिनाई यह आती है की मामला किस अदालत मे डाला जाए –एक्शन कहा हुआ माना जाए । इंटरनेट के माध्यम से होने वाली खरीद के लिए उपभोक्ता अदलते दोनों स्थानो पर मामले दर्ज केर रही है । इस लिए यह भी समस्या नहीं रही ।
कुल मिला कर काम उपभोक्ता अदालतों से चल रहा है पर कुछ सावधानिया बरतना आवश्यक है –
• डील करने से पहले कंपनी के कारोबार का पता ,उसका पंजीकृत ऑफिस तथा शाखाओ आदि की जानकारी ले । अपरिचित वेब पर भरोसा न करे
• समान बेचने की प्रक्रिया ,ट्राकिंग संबधी सूचना प्राइवसी पॉलिसी आदी की जानकारी के बिना अपने आकाओंट नंबर न दे । अपने अकाउंट को चेक करते रहे ।
• यदि आपका ऑर्डर लेने के बाद प्रॉडक्ट उपलब्ध नहीं की सूचना मिलती है तो आप वेब को दोष नहीं दे सकते क्योकि यह प्लैटफ़ार्म आपको अनये डीलरो से सामान उपलब्ध कराते है ओर यह मांग ओर सफ्लाई के उपर निर्भर करता है । अमूमन यह सूचना 48 घंटो मे मिलनी चाहिए ओर आपके पैसे के रिफ़ंड की प्रक्रिया भी शुरू हो जानी चाहिए या आप प्रतीक्षा के लिए तैयार रहे ।
• यदि आप पेमेंट केश ऑन डेलीवेरी पर करते है तो रिफ़ंड की लंबी प्रक्रिया से बच सकते है। आपका ऑर्डर कान्फ़र्म होने की आपको हर बार सूचना ओर ऑर्डर नंबर दिया जाता है ।
• यदि आप बार बार केश ऑन डिलीवेरी ऑर्डर करके डेलीवेरी नहीं लेते तो कंपनी के रेकॉर्ड मे आप डिफाल्टर हो सकते है ओर आपका ऑर्डर न ले या ऑर्डर कनफेर्म न करे तो आपको अधिक अधिकार नहीं रेहता क्योकि अपना प्रॉडक्ट न बेचने का उनका अधिकार है ।
Dr Prem Lata
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Consumerism

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