भारत के संविधान का चैप्टर 1V; संघ की न्यायिका
हमारे संविधान के अनुच्छेद 124(7) मे सर्वोच्च न्यायालय के गठन के बारे मे चर्चा है तथा इसमे उल्लेख है –
“कोई भी व्यक्ति जो सर्वोच्च न्यायालये का न्याएधीश रह चुका है,भारत की सीमा के भीतर किसी अदालत या किसी अथॉरिटी के समक्ष प्लीड करेगा या काम करेगा ”
अपनी 14वी रिपोर्ट मे विधायी आयोग ने सर्वोच्च न्यायाल्ये के न्यायधीशों का सेवानिवृति के बाद राज्य तथा केन्द्र सरकार के अधीन नौकरी स्वीकार करने के प्रश्न पर विचार किया था । आयोग का यह मानना था कि सर्वोच्च न्यायाल्ये के जजो कि स्वतंत्र बरकार रखने के लिए ऐसे कानून की आवश्यकता है जिसमे अनुच्छेद 128 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालये मे एड- हॉक नियुक्तियों के अलावा ,जजो की सेवानिवृति के बाद नियुक्तियों पर रोक लगाई जाए । प्रथम विधायी आयोग के चेयरमैन एम सी सेतलवाड ने अपनी जीवनी मे लिखा था –
“आयोग ने बड़ी गंभीरता से इस विषय पर विचार किया है ओर सर्व सम्मति से यहमत व्यक्त करता है की जजो का सेवानिवृति के बाद सरकार के अधीन नौकरी स्वीकार करना वांच्छित नहीं है क्योकि इससे न्यायिका की स्वतंत्रता प्रभावित होती है । इसलिए हम इस बात की सिफ़ारिश करते है कि जजो के संघ या राज्ये सरकार के अधीन कोई ऑफिस स्वीकार करने पर वैसे ही रोक लगाई जाए जैसे ओडिटोर तथा कंट्रोलर जनरल तथा पब्लिक सरविस कमीशन पर लगाई गई है ।”
अनुच्छेद 124(7) मे प्रयुक्त शब्द ‘एक्ट’ का अर्थ ‘एक्टिंग एस जज’ है क्योकि इसको प्लीड शब्द के बाद रखा गया है। इसी तरह की भाषा अनुच्छेद 220 मे भी है जिसमे यह लिखा गया है कि इस संविधान के लागू होने के बाद कोई भी व्यक्ति जिसने स्थायी रूप से उच्च न्यायाल्ये के न्यायेधीश पद पर काम किया हो सर्वोच्च न्यायालये या उच्च न्यायालये को छोड़ कर किसी भी अथॉरिटी के समक्ष प्लीड नहीं करेगा न ही किसी कोर्ट मे (जज के रूप मे ) काम करेगा।
किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि इस स्पष्ट वक्तव्ये के बावजूद भी कुछ कानूनों मे विशेष रूप से यह प्रावधान रखे गए है कि केवल सर्वोच्च न्यायालये के सेवानिवृत जज ही सरकार के अधीन न्यायिक पदो पर रखे जाए । यह अनुछेद 124(7) की भावना के विरुद्ध है ।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 कि धारा 20(1) को देखे –
“20(1)नेशनल कमीशन मे – (ए) वह व्यक्ति जो सर्वोच्च न्यायालये का जज रहा हो केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त किया जाएगा जो इसका अध्यक्ष होगा।
इस प्रावधान की विसंगति इसी बात से परिलक्षित हो जाती है कि जब हम इसी अधिनियम के दूसरे प्रावधानों को देखते है । इससे अगले प्रावधान धारा 23(2) मे कहा गया है कि नेशनल कमीशन की अपील सर्वोच्च न्यायालये सुनेगा ।
दूसरे शब्दो मे सेवानिवृत सर्वोच्च न्यायालये के जज (सीनियर जज )के निर्णय को सिट्टिंग जज जँचेगा ओर ठीक करेगा । यह कोई सुखद स्थिति नहीं लगती ।
यही स्थिति कई दूसरे अधिनियमो मे भी है,उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम कोई अपवाद नहीं है इस मामले मे ।
इस विषय मे विवाद अब तूल पकड़ रहा है कि सिट्टिंग जज त्रिबुनल आदि मे आवेदन करे या न करे । यह बात इस लिए भी आगे बड़ रही है क्योकि पहली बात तो यह है कि जज अपनी नियुक्ति के लिए सरकार पर दबाव बनाने ओर नियुक्तियों को प्रभावित करने की स्थिति मे होते है । दूसरा उनका कार्येकाल समाप्त होने से पहले उनको चुन लिया जाता है ओर विभाग को उनके सेवनीवरित होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है ओर पद तब तक रिक्त पड़ा रेहता है । दिल्ली उच्च न्यायालये के जज जस्टिस आर एस सोढ़ी ने इस सिस्टम पर बहुत अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए तीव्र आलोचना की है कि यह कैसी व्यवस्था है जिसमे जज आपस मे नियुक्ति पाने के लिए भीड़ रहे है ओर सरकार से अपने को चुन लेने की गुजारिश केआर रहे है । नैतिक पाटन की यह चरम पराकाष्ठा है जब वे अपने न्यायिक पद पर रहते हुए सरकारी पद के लिए लालायित दिखते है । आदर्श स्थिति हो जब रिटायर्ड जज सरकारी नौकरी के लिए आवेदन न कर । यह किस प्रकार कि न्यायिक स्वतन्त्रता रेह गई हा बाकी जब जीवन के इस काल मे अपनी गरिमा को त्याग कर नीचे उतरना पड़े।
डॉ प्रेम लता
मेम्बर, उपभोक्ता नियम समिति , उपभोक्ता मामले मंत्रालय,भारत सरकार ।
पूर्व मेम्बर ,उपभोक्ता अदालत ,नई दिल्ली ।